तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ
ख़त्म भी कर देता हूँ आगाज़ भी कर लेता हूँ
तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ
ख़त्म भी कर देता हूँ आगाज़ भी कर लेता हूँ
ख़ाक में दौलत-ए-पंदार-ओ-अना मिलती है
अपनी मिट्टी से बिछड़ने की सज़ा मिलती है
रहे दूरियाँ तो क्या हुआ…
याद नज़रों से नहीं, दिल से किया जाता है
ठुकराया हमने भी बहुतों को है, तेरी खातिर,
तुझसे फासला भी शायद उन की बद्दुआओ का असर है
क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी आ जाए
आसमाँ की तरफ़ इक बार उछल कर देखें
तू है जो रूबरू मेरे, बड़ा महफूज रहता हूँ
तेरे मिलने का शुकराना, ख़ुदा से रोज करता हूँ
घर से निकले हुए बेटों का मुक़द्दर मालूम
माँ के क़दमों में भी जन्नत नहीं मिलने वाली
खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे है
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
ग़लती नीम की नहीं कि वो कड़वा है
ख़ुदगर्ज़ी जीभ की है जिसे मीठा पसंद है
उस गली ने सुन के सब्र किया
जाने वाले यहाँ के थे ही नही
तुम मुझे मिले बगैर अपने से लगते हों
कौन कहता है रिश्ते इंसान बनाता है !!
इक छोटी सी ही तो हसरत है, इस दिल ए नादान की
कोई चाह ले इस कदर कि, खुद पर गुमान हो जाए
अक्सर वो फैसले मेरे हक़ में गलत हुए,
जिन फैसलो के नीचे तेरे दस्तखत हुए
एक रोज तय है …खुद तब्दील ‘राख’ में होना,
उम्रभर फिर क्यों औरों से ,आदमी जलता है
क्यों खामोश बैठे हो जरा मुह तो खोलो
मेरी बुराई ही सही मगर कुछ तो बोलो